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कृपाचार्य: माँ के गर्भ से नहीं हुआ था इनका जन्म!

हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथों में से एक ग्रन्थ, महाभारत, के प्रमुख पात्रों में से एक थे राजगुरु कृपाचार्य। गौतम ऋषि के पुत्र शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े। माना जाता है कि इस युद्ध में वे जिंदा बच गए क्योंकि उन्हें चिरंजीवी रहने का वरदान मिला हुआ था। कृपाचार्य के जन्म के संबंध में पूरा वर्णन महाभारत के आदि पर्व में मिलता है।

आदि पर्व के अनुसार, शरद्वान महर्षि गौतम के पुत्र थे। वे बाणों के साथ ही पैदा हुए थे। उनका मन धनुर्वेद में जितना लगता था, उतना पढ़ाई में नहीं लगता था। उन्होंने घोर तपस्या से अनेकों अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किए थे।

इंद्र ने भेजा अप्सरा को:-

शरद्वान की घोर तपस्या और धनुर्वेद में निपुणता देखकर देवराज इंद्र बहुत भयभीत हो गए। उन्होंने अपने स्वाभाव के अनुसार शरद्वान की तपस्या में विघ्न डालने के लिए जानपदी नाम की अप्सरा को धरती पर भेजा।

वह शरद्वान के आश्रम के बहार आकर उन्हें लुभाने की चेष्टा करने लगी। चूँकि वह अत्यंत सुन्दर थी इसलिए उस अप्सरा को देखकर ऋषि शरद्वान के हाथों से धनुष-बाण गिर गए।

चूँकि वे एक ब्रह्मचर्य जीवन जीते थे इसलिए वे बहुत ही संयमी थे और उन्होंने स्वयं को रोक लिया, लेकिन उनके मन में कुछ समय के लिए विकार आया। इसलिए अनजाने में ही उनका शुक्रपात हो गया। वे उसी क्षण खड़े हुए और अपने धनुष, बाण, मृगचर्म तथा उस अप्सरा को भी पीछे छोड़कर चले गए।

सरकंडों से हुई उत्पत्ति:-

उनका वीर्य सरकंडों पर गिरा था, इसलिए वह दो भागों में बंट गया। उसके एक भाग से एक कन्या और दूसरे से एक पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसी समय संयोग से राजा शांतनु वहां से गुजरे। उन्होंने कुटिया से बालकों के रोने की आवाज़ सुनी और वे कुटिया में चले गए। वहां उनकी नजर उस बालक व बालिका पर पड़ी। महाराज शांतनु को उन पर दया और उन्होंने उन्हें उठा लिया और अपने साथ ले आए। उन्होंने बालक का नाम रखा कृप और बालिका नाम रखा कृपी।

कृपाचार्य को बनाया गया राजगुरु:-

जब ऋषि शरद्वान को यह बात मालूम हुई तो वे राजा शांतनु के पास आए और उन बच्चों के नाम, गोत्र आदि बतलाकर चारों प्रकार के धनुर्वेदों, विविध शास्त्रों और उनके रहस्यों की शिक्षा दी।

थोड़े ही दिनों में कृप सभी विषयों में पारंगत हो गए। कृपाचार्य की योग्यता देखते हुए उन्हें कुरुवंश का कुलगुरु नियुक्त किया गया। इसी के साथ ही उन्हें कृपाचार्य के नाम से ख्याति प्राप्त हुई। उनकी बहन कृपी का विवाह गुरु द्रोणाचार्य जी के साथ हुआ।

कृपाचार्य जी को अष्टचिरंजीवियों में स्थान मिला है, कहा जाता है कृपाचार्य जी ने भी महाभारत के युद्ध में भाग लिया था और वे उस युद्ध में जीवित भी रहे थे।  उन्होंने कौरवों के पक्ष से ही युद्ध किया था, किन्तु युद्ध समाप्त होने के पश्चात् उन्होंने राज्य का त्याग कर दिया और तप करने के लिए वन में चले गए।

 

 

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छोटी परन्तु बहुत महत्वपूर्ण जानकारियां

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